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किशनगंज के संतोषचंद श्यामसुखा ने लिया संथारा का संकल्प

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किशनगंज– जैन धर्म की एक अत्यंत पवित्र, कठिन और आत्मिक साधना मानी जाने वाली प्रथा संथारा (या सल्लेखना) का संकल्प किशनगंज निवासी संतोषचंद श्यामसुखा ने लिया है। उन्होंने यह स्वेच्छिक और धार्मिक निर्णय तेरापंथ धर्मसंघ के आचार्य श्री महाश्रमणजी की अनुमति तथा समणी निर्देशिका भावित प्रज्ञाजी और अन्य समणियों के मार्गदर्शन में लिया। संथारा एक ऐसी तपस्या है जिसमें व्यक्ति धीरे-धीरे भोजन और जल का त्याग कर, ध्यान, प्रार्थना और जैन सिद्धांतों का पालन करते हुए आत्म-शुद्धि और मोक्ष की ओर बढ़ता है।

यह निर्णय न केवल संतोषचंद श्यामसुखा की गहन आध्यात्मिक आस्था को दर्शाता है, बल्कि यह भी प्रमाणित करता है कि आज भी जैन समाज में धर्म और साधना के प्रति गहरा समर्पण मौजूद है।

किशनगंज के संतोषचंद श्यामसुखा ने लिया संथारा का संकल्पकिशनगंज के संतोषचंद श्यामसुखा ने लिया संथारा का संकल्प
किशनगंज के संतोषचंद श्यामसुखा ने लिया संथारा का संकल्प

क्या है संथारा?

संथारा, जिसे सल्लेखना भी कहा जाता है, जैन धर्म की एक अत्यंत कठिन तपस्या है, जो जीवन के अंतिम चरण में आत्मा की शुद्धि, कर्मों के क्षय और मोक्ष की प्राप्ति के लिए की जाती है। इसमें व्यक्ति स्वेच्छा से भोजन और जल का क्रमिक त्याग करता है, और जीवन के अंतिम क्षणों तक ध्यान, साधना और जप में लीन रहता है। यह आत्महत्या नहीं, बल्कि पूर्ण आत्म-नियंत्रण और आध्यात्मिक चेतना का प्रतीक है।

किशनगंज के संतोषचंद श्यामसुखा ने लिया संथारा का संकल्प
किशनगंज के संतोषचंद श्यामसुखा ने लिया संथारा का संकल्प

2015 में आया था विवाद

गौरतलब है कि वर्ष 2015 में राजस्थान हाईकोर्ट ने संथारा प्रथा पर रोक लगा दी थी और इसे आत्महत्या के समान करार दिया था। इस फैसले के खिलाफ जैन समुदाय के कई संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया। सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगाते हुए यह स्पष्ट किया कि संथारा जैन धर्म की एक धार्मिक और आध्यात्मिक प्रथा है, और इसे आत्महत्या के समकक्ष नहीं माना जा सकता।

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि संथारा एक धार्मिक विकल्प है, और इसे संविधान के अनुच्छेद 25 के अंतर्गत धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है।

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तपस्वी का जीवन: समाज के लिए प्रेरणा

संतोषचंद श्यामसुखा द्वारा लिया गया यह संकल्प समाज में संयम, त्याग और आध्यात्मिक बल का संदेश देता है। जैन धर्म में तपस्या को आत्म-शुद्धि का सशक्त माध्यम माना गया है। तपस्वी वह होता है जो अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखते हुए कठिन साधना करता है, मानसिक और शारीरिक कष्टों को सहकर आत्मा को परम शुद्धता की ओर अग्रसर करता है।

तपस्वी का जीवन त्याग, संयम और धर्म के प्रति पूर्ण समर्पण का प्रतीक बन जाता है। वह समाज को यह प्रेरणा देता है कि सच्ची शक्ति भौतिक साधनों में नहीं, बल्कि आत्म-नियंत्रण और आध्यात्मिक चेतना में निहित है।

जैन समाज में उत्साह और श्रद्धा

संतोषचंद श्यामसुखा के इस संकल्प को लेकर जैन समाज में गहरी श्रद्धा और उत्साह का माहौल है। स्थानीय जैन श्रद्धालुओं और धर्मावलंबियों ने इस निर्णय को तप, धर्म और आस्था की महान मिसाल बताया है। कई धार्मिक अनुष्ठानों, प्रवचनों और साधना सत्रों का आयोजन किया जा रहा है, जिनमें संतोषचंद श्यामसुखा के संथारा तप का मार्गदर्शन समणियों और अन्य धर्मगुरुओं द्वारा किया जा रहा है।


निष्कर्ष:
संथारा की यह अद्वितीय साधना न केवल आत्मा के उत्थान का मार्ग है, बल्कि यह समाज को भी संयम, शांति और धार्मिक समर्पण की ओर प्रेरित करती है। किशनगंज के संतोषचंद श्यामसुखा का यह निर्णय एक सशक्त संदेश है कि आज के युग में भी आध्यात्मिक साधना और धार्मिक आस्था की जड़ें गहरी हैं।

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